Wednesday, August 13, 2008

हम कब से दुश्मन हो गये...


कश्मीर के दस ज़िले सुलग गये, एक बार तो ऐसा लगा कि पिछले पन्द्रह साल की मेहनत बेकार हो चुकी है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन दी और फिर वापस ली, इस पूरी कार्यवाही में उतना फायदा नहीं हुआ जितना नुकसान हो गया। नीयत किसकी खराब है ये सवाल पीछे छूट चुका है। चिंता इस बात की बढ़ गयी है कि डेढ़ दशक की मेहनत पर पानी न फिर जाय। मारे तो सब जगह बेकसूर ही जायेंगें, लेकिन उनकी चिताओं की आग उन नेताओं की रोटियां ज़रूर सेंक देंगीं जिन्हैं कश्मीर का आवाम तकरीबन भूलने को है। अमन की सारी कोशिशें चिनाब के पानी में बरसाती पानी की तरह बह जायेंगी, और पीछे छूट जायेगा, देवदार के दरख्त का वों ठूंठ जिस पर पत्तियां उगने से इन्कार कर सकती हैं। बदजुबान और गंदी नीयतें धरती के स्वर्ग को बरबाद कर रही हैं, दिल्ली की चक्कियों में आटा पीस कर खाने वाले, मुज्जफराबाद चलों के नारे लगा रहे हैं। सरकार की बेबसी पर आप सिर्फ बेबस बन सकते हैं, गुस्सा भी कर सकते हैं उस नामर्दी पर जो इस देश की राजनीति में पल रही है। वो जैसा चाहे वैसा कर रहे हैं, हम जैसा चाहे वैसा कर रहे हैं, इस आग के रंग बदल दिये गये हैं, मौकापरस्त जश्न मना रहे हैं लेकिन स्तब्ध है वो आवाम जो इसे अपना देश मान रही है। एक ऐसा प्रस्ताव अभी तक नहीं आया है जिस में कोई जान हो, कोई सरकारी नुमाइंदा ये बताने की हिम्मत नहीं कर रहा कि वो क्या करने जा रहे हैं। अलगाववादियों की राजनीति ठंडी पड़ रही थी, बैठे बिठाये एक अदूरदर्शी फैसले ने आग बरसा दी। डरने वाले को राजा बने रहने का कोई हक नहीं, जो निर्भय नहीं उसे सिंहासन त्याग देना चाहिये, लोभ और मोह के ये पुतले केवल मौके बर्बाद कर रहे हैं और कुछ नहीं। इन लोगों की कारस्तानी ने दुश्मनी और बढ़ा दी हैं। आज के हालात देखिये और सोचिये जम्मू कब से कश्मीर का दुश्मन हो गया ? ये बात वो लोग कह सकते हैं जिनको इस मौके की तलाश थी लेकिन उनका क्या जिनकी सब्ज़ियों के ट्रक हाइवे पर खड़े हैं। सच है मरता इमानदार ही है। वो चंद लोग जो विषम से विषम परिस्थितियों में पुल बने रहे आज उनके पांव जकड़ दिये गये हैं..अफसोस हमें दुश्मन ठहरा दिया

6 comments:

अजय शेखर प्रकाश said...

दिनेश जी, दुश्मन कौन है ये सब जानते हैं। कश्मीर में आग कब और कैसे लगी? ये किसी से छिपी नहीं है, और ये भी किसी से छिपा नहीं है कि इसका जिम्मेदार कौन है। हम किसी व्यक्ति विशेष को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहते, बल्कि हमारे समाज में कट्टरपंथ नाम का एक ऐसा जहर है, जो गाहे-बगाहे लोगों के दिलो-दिमाग में चढ़ जाता है। मेरा मानना है कि सबसे पहले इस कट्टरपंथ नाम के विष का इलाज ढूंढना जरूरी है। कट्टरपंथी तत्वों का जब नाश होगा,तब खुद-ब-खुद तय हो जाएगा कि कश्मीर किसका है। बहरहाल आपका ये आलेख गंभीर बहस की मांग करता है। मेरे पास फिलहाल वक्त नहीं है, वरना मैं इस पर काफी कुछ कहना चाहता था। फिर भी आपका ब्लॉग अब इस तरह की गंभीर विषयों को केन्द्र में रख रहा है,ये काफी अच्छा है। -अजय शेखर प्रकाश,वॉयस ऑफ इंडिया

अनिल कुमार वर्मा said...

दिनेश जी, बात जितनी सीधी दिखती है उतनी है नहीं। मसला केवल एक ज़मीन के टुकड़े का नहीं हैं बल्कि इस मामले के पीछे एक सोची समझी गहरी साजिश है। दरअसल इस मुद्दे के बहाने कुछ स्वार्थी तत्व अपना समाप्त होता राजनीतिक अस्तित्व फिर से कायम करना चाह रहे है और ये कोई नई बात नहीं कि अपने फायदे के लिए लोग निर्दोष और बेकसूरों की गर्दनें काट दें। बहरहाल मामला चाहे अमरनाथ श्राइन बोर्ड की ज़मीन का हो चाहे कश्मीर का, सुलझेगा बातचीत से ही। शर्त ये है कि बातचीत के माहौल में स्वार्थ की गंध न घुली हो।
बहरहाल एक संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित लेख के लिए बधाई।

अनिल कुमार वर्मा said...

दिनेश जी, बात जितनी सीधी दिखती है उतनी है नहीं। मसला केवल एक ज़मीन के टुकड़े का नहीं हैं बल्कि इस मामले के पीछे एक सोची समझी गहरी साजिश है। दरअसल इस मुद्दे के बहाने कुछ स्वार्थी तत्व अपना समाप्त होता राजनीतिक अस्तित्व फिर से कायम करना चाह रहे है और ये कोई नई बात नहीं कि अपने फायदे के लिए लोग निर्दोष और बेकसूरों की गर्दनें काट दें। बहरहाल मामला चाहे अमरनाथ श्राइन बोर्ड की ज़मीन का हो चाहे कश्मीर का, सुलझेगा बातचीत से ही। शर्त ये है कि बातचीत के माहौल में स्वार्थ की गंध न घुली हो।
बहरहाल एक संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित लेख के लिए बधाई।

अनिल कुमार वर्मा said...

दिनेश जी, बात जितनी सीधी दिखती है उतनी है नहीं। मसला केवल एक ज़मीन के टुकड़े का नहीं हैं बल्कि इस मामले के पीछे एक सोची समझी गहरी साजिश है। दरअसल इस मुद्दे के बहाने कुछ स्वार्थी तत्व अपना समाप्त होता राजनीतिक अस्तित्व फिर से कायम करना चाह रहे है और ये कोई नई बात नहीं कि अपने फायदे के लिए लोग निर्दोष और बेकसूरों की गर्दनें काट दें। बहरहाल मामला चाहे अमरनाथ श्राइन बोर्ड की ज़मीन का हो चाहे कश्मीर का, सुलझेगा बातचीत से ही। शर्त ये है कि बातचीत के माहौल में स्वार्थ की गंध न घुली हो।
बहरहाल एक संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित लेख के लिए बधाई।

Pawan Nishant said...

jab tak kashmir me hindu nahin basaaye jayenge, yeh problem bani rahegi. govt ko is mamle me vishwa samuday ki parwah nahin karni chahiye.
pawan nishant
ya mera darr lautega.blogspot.com

Pawan Nishant said...

jab tak kashmir me hindu nahin basaaye jayenge, yeh problem bani rahegi. govt ko is mamle me vishwa samuday ki parwah nahin karni chahiye.
pawan nishant
ya mera darr lautega.blogspot.com