Sunday, July 25, 2010

खट्टा मीठा बुरी फिल्म है

पहले माफी मांग लेता हूं क्योंकि प्रियदर्शन की फिल्मों का इतिहास इतना बुरा नहीं है जितनी बुरी फिल्म खट्टा मीठा बनी है। एकदम बकवास, कोई कहानी नहीं, कोइ संवाद नहीं, हंसाने के बेहूदा और बासी फॉर्म्यूले। फिल्म देखे हुये बारह घंटे से ज़्यादा बीत गये हैं लेकिन एक भी सीन ऐसा नहीं है जिसकी तारीफ कर सकूं। हीरो अक्षय कुमार है बस यही कहानी है फिल्म की, जितना बन पड़ सकता है अक्षय ने कर दिखाया है लेकिन कमजोर कहानी ने सारे किये कराये पर पानी फेर दिया है। हीरोईन तो ऐसी है कि बस पूछिये मत, नाचना भी नहीं सिखाया प्रियदर्शन ने उसको। कुलभूषण खरबन्दा ने जो गंभीरता दिखाई है उसे तार तार कर दिया है कमजोर कहानी और निर्देशन ने। सारे कलाकार प्रियदर्शन की पुरानी फिल्मों के पिटारे से ज़रूर हैं लेकिन कोभी भी छाप नहीं छोड़ पाया। असरानी का टेलीफोन पर कन्फयूज होने वाला सीन तो इतना बकवास है कि खुद आसरानी को शर्म आ जाय़। राजपाल यादव भी क्या करते। सब ने जोर लगाया लेकिन सब दिशाहीन हो गये। भटकाव भी ऐसा की पूरी फिल्मन में रास्ता नहीं मिला। देश प्रेम के नाम पर इतने बासी डायलॉग कि उनमें से बास आ रही थी। ये मेरी खुद की फ्रस्ट्रेशन हो सकती है कि मैं कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर के फिल्म देखने चला गया था। बुरा मत मानियेगा लेकिन प्रियदर्शन की इस फिम्म के केवल बकवास ही बकवास है। कुछ भी देखने लायक नहीं है।

Tuesday, July 6, 2010

बहुत कुछ कहता है यह तेवर

Dainik Jagran se liya hai

नई दिल्ली [अवधेश कुमार]। पांच जुलाई के भारत बंद की भौगोलिक व्यापकता और बहुत हद तक मिली सफलता का कोई एक सर्वप्रमुख कारण है तो वह है संप्रग में शामिल और बाहर के कुछ छोटे दलों को छोड़कर शेष राजनीतिक दलो की एकजुटता। एक साथ इतने दलों का भारत बंद में शामिल होना असाधारण है।

भाजपा और वामदलों का भारत बंद में शामिल होने का अर्थ ही था कि इनके या इनके साथी दलों की सरकारों या इनके प्रभाव वाले राज्यों में बंद का असर सुनिश्चित होना। वामदल के कारण तमिलनाडु में जयललिता की अन्नाद्रमुक, आध्र में तेलुगूदेशम जैसी पार्टियो ने भी बंद का साथ दिया और भाजपा के साथ राजग के साथी दल तो हैं ही।

सरकार का चाहे जो तर्क हो, लेकिन ऐसे समय जबकि देश में मुद्दा आधारित राजनीतिक आदोलनों की परंपरा लगभग समाप्तप्राय है, उसमें बंद को सफल माना जाएगा। अधिकतर राज्यों में बंद प्रभावी रहा है।

चरम पर पहुंची महंगाई की इस आपात घड़ी में यदि ये दल इतने आक्रामक तेवर के साथ सामने नहीं आते तो जनता में इनकी साख गिरती। यह विपक्ष के बिखराव का ही मनोवैज्ञानिक असर था कि सरकार ने आम जरूरत की चीजों के मूल्यों में कमी लाने के लिए कदम उठाने की बात तो दूर घाटे को आधार बनाकर तेल की कीमतें बढ़ा दीं और प्रधानमंत्री ने तो टोरंटो से वापसी में यह ऐलान कर दिया कि ये मूल्य और बढ़ सकते हैं। यह देश में महंगाई के खिलाफ कायम जन आक्रोश के विरुद्ध वक्तव्य था। संभवत: काग्रेस नेतृत्व ने यह मान लिया था कि उसके खिलाफ विपक्ष एकजुट नहीं हो सकता।

जाहिर है, अगर सरकार की कल्पना के विपरीत महंगाई के बिल्कुल उपयुक्त मुद्दे पर सशक्त विपक्षी एकता दिखी है तो इसके राजनीतिक परिणाम भी आने वाले समय में दिखेंगे। हालाकि संसद के कटौती प्रस्ताव में भाजपा और वामदलों के साथ आने से ही सरकार को चौकन्ना हो जाना चाहिए था, पर शायद उसने इसे एक तात्कालिक परिघटना मानने की भूल की। वास्तव में पिछले लगभग दो दशक से भारतीय राजनीति का जो स्वरूप सघन हो चुका था, उसमें यह कल्पना तक नहीं की जा सकती थी कि भाजपा और वामदल कभी एक पाले में खड़ा होंगे और वे कोई राजनीतिक अभियान चलाते साथ दिखेंगे। किंतु अब यह एक प्रचंड हकीकत के रूप में हमारे सामने है।

पांच जुलाई का भारत बंद इस दृष्टि से भारतीय राजनीति में आने वाले समय के लिए नई दिशा का संकेत देने वाला है। हालाकि भारत बंद में एक साथ दिखने वाले राजनीति के इन दोनों ध्रुवों के बीच कोई सकारात्मक समीकरण बनेगा और वह सत्ता समीकरण के रूप में भी उभर पाएगा, ऐसा कहना अभी जल्दबाजी होगा, लेकिन काग्रेस नेतृत्व विरोधी इस बंद पर इनकी एकता का भविष्य में कोई राजनीतिक फलितार्थ नहीं होगा, ऐसा भी संभव नहीं।

यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि उनके विरोध में बना यह नया समीकरण, भले तात्कालिक हो, पर उसके रणनीतिकारों की नींद उड़ाने वाला है। काग्रेस नेतृत्व वाले संप्रग की पिछली सरकार इसलिए इतना लंबा खींच गई, क्योंकि वामदल भाजपा भय के मनोविज्ञान से ग्रस्त रहे। वाममोर्चा का नेतृत्व करने वाले माकपा नेताओं का एक ही तर्क होता था कि सरकार को अस्थिर करने से भाजपा को लाभ हो जाएगा। चूंकि 1990 के दशक से आरंभ भाजपा विरोधी राजनीतिक ध्रुवीकरण की अगुवा स्वयं माकपा ही थी, इस कारण उसके लिए सहसा इस आवरण से परे हटने में स्वाभाविक मनोवैज्ञानिक हिचक थी। भारत बंद में इनके एक साथ आने के बाद इतना तो कहा ही जा सकता है कि उस घनीभूत मानसिक हिचक में कमी अवश्य आई है।

काग्रेस इस तथ्य को न भूले कि भारत की राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी विपक्षी एकजुटता दो दशकों के बाद दिखी है। स्वर्गीय राजीव गाधी के प्रधानमंत्रीत्व काल में जब काग्रेस को लोकसभा में ऐतिहासिक बहुमत प्राप्त था, विपक्ष की ऐसी ही एकजुटता दिखी थी। पूरे विपक्ष ने 1989 में भारत बंद का आह्वान किया था और बाद में लोकसभा से सामूहिक त्यागपत्र के ऐतिहासिक कारनामे को अंजाम दिया था।

1990 के चुनाव में उसका परिणाम दिखा और काग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जन मोर्चा की सरकार बनी, जिसे तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में वामदलों और भाजपा ने बाहर से समर्थन दिया था। ठीक है कि अयोध्या आदोलन पर भाजपा के तेवर से वह समीकरण टूट गया, लेकिन उस समय काग्रेस को जो धक्का लगा, उससे वह आज तक उबर नहीं सकी है।

सच कहा जाए तो अगर माकपा ने गैर भाजपा और गैर काग्रेस ध्रुवीकरण में भाजपा को पहला अस्पृश्य मानने की राजनीति न की होती तो इस समय भारत का राजनीतिक परिदृश्य अलग होता। किंतु भाजपा विरोधी राजनीति के अंधेरे ने काग्रेस सहित कई दलों के पापों को ढक दिया। लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता दल और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी उन्हीं दलों में शामिल है। भाजपा विरोधी राजनीति का इन दलों ने अपने स्वार्थ साधने के लिए इस्तेमाल किया और इसके परिणामस्वरूप उदारीकरण के नाम पर बाजार पूंजीवाद की क्रूर नीतियो के खिलाफ परिणामकारी राजनीतिक संघर्ष नहीं हो सका। वर्तमान महंगाई इसी की परिणति है। भारत बंद में इस श्रेणी के कई नेताओं की सक्रियता से इस जड़स्थिति में परिवर्तन की हल्की उम्मीद जगी है।

यह ठीक है कि प्रचार माध्यमों के प्रभावों के कारण जनता के अंदर सामूहिक अन्याय के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष की चेतना मृत हो चुकी है और बंद, विरोध प्रदर्शनों आदि को निरर्थक एवं विकास विरोधी बताने की मीडिया के एक तबके की कोशिशों के कारण इनकी खिल्ली उड़ाने का माहौल भी बना है। इस सामूहिक मनोविज्ञान में यह कल्पना ही बेमानी होगी कि राजनीतिक दलों के बंद के आह्वान में जनता स्वत: स्फूर्त आगे आएगी या व्यापारी अपनी दुकानें स्वेच्छा से बंद रखेंगे।

दिल्ली में ही कई मुहल्लों की दुकानों का खुला रहना इस बात का प्रमाण था कि राजनीतिक कार्यकर्ताओ को इस बंद का जितना प्रचार करना चाहिए था, बंद के पूर्व इसके लिए माहौल बनाने की जो कोशिश होनी चाहिए थी, उसमें कमी रह गई, लेकिन यह सरकार के लिए किसी तरह संतोष का विषय नहीं है। आम लोगो से बात करने पर प्रतिक्रिया यह थी कि महंगाई ने जीना हराम कर दिया है, इसमें सरकार का विरोध तो होना ही चाहिए यानी लंबे समय बाद विपक्ष के किसी आह्वान को जनता की बहुमत का मानसिक समर्थन मिला है।

सरकार इस अंतरधारा को समझे और महंगाई बढ़ने को विकास का सूचक बताने या इसे अवश्यंभावी मानने जैसे तर्को की बजाय राजनीतिक सहमति से महंगाई कम करने की दिशा में कदम उठाए। अब वह यह मुगालता न पाले कि विपक्ष केवल चिल्लाएगा, लेकिन एकजुटता के अभाव में वह उसे कोई राजनीतिक नुकसान नहीं पहुंचा सकता। आर्थिक नीतियों के खिलाफ एक अघाए वर्ग को छोड़कर पूरे देश में असंतोष है, भले वह सामूहिक रूप में प्रकट नहीं हो। विपक्षी दलों ने इसे यदि हवा दी और सतत अभियान चलाया तो पूरे देश में सरकार विरोधी, काग्रेस विरोधी माहौल बन सकता है। ये पार्टिया केवल भारत बंद तक ही तो अपना अभियान सीमित नहीं रख सकतीं। आगे इसमें से धीरे-धीरे कोई ऐसा राजनीतिक समीकरण निकल सकता है, जिसमें भाजपा और वामदलों के बीच किसी तरह सहयोग की गुंजाइश बन जाए।

इस बंद से दूर क्यों रहा आम आदमी

बीपी गौतम। यूपीए सरकार के वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने जब संसद में बजट पेश किया था, तभी निश्चित हो गया था कि महगाई और बढ़ेगी, क्योंकि महगाई रोकने के उपाय बजट के दौरान किए ही नहीं गए। इसलिए महगाई लगातार बढ़ रही है और लगातार बढ़ती भी रहेगी। महगाई को लेकर समाज का हर वर्ग परेशान है। यह बात पक्ष-विपक्ष दोनों ही अच्छी तरह जानते है।

विपक्ष एकजुट है और आदोलन का सहारा लेकर यूपीए सरकार को घेरने का प्रयास कर रहा है, लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि यूपीए सरकार की नीतियों से त्रस्त जनता विपक्ष का साथ देती नजर नहीं आई। इसके कई कारण हो सकते है, लेकिन मूल कारण यही है कि जनता का राजनीतिक दलों से ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र से ही विश्वास उठता जा रहा है, क्योंकि जनहित के मुद्दों पर कोई गंभीर नहीं है। सबके सब राजनीतिक लाभ के तहत मुद्दों को देख रहे है और भुनाने का प्रयास कर रहे है, जिसे जनता अब अच्छी तरह समझ गई है, तभी आदोलन का हिस्सा बनकर अपनी परेशानिया और नहीं बढ़ाना चाह रही।

गुजरे दशक तक देश और प्रदेश में कई ऐसे प्रभावशाली नेता थे, जो जनहित के मुद्दों पर आदोलन का आह्वान करते थे तो आदोलन का असर दिखाई देता था। उस समय गावों में बसें खड़ी नहीं की जाती थीं और न ही सरकारी मशीनरी आदोलन को बढ़ाने या कुचलने में रोड़ा बनती थी, फिर भी घर-परिवार और काम छोड़ लाखों की संख्या में लखनऊ और दिल्ली की ओर लोग उमड़ते देखे जा सकते थे, लेकिन अब सत्तापक्ष या विपक्ष आह्वान के साथ जनता को लाने के लिए करोड़ों रुपये भी बहाता है। खाने-पीने की व्यवस्था तक की जाती है, लेकिन लोगों से ज्यादा वाहन ही दिखाई देते है। आदोलनों की सफलता के लिए जनता की भागीदारी बेहद जरूरी है। जनता की भागीदारी न होने के कारण ही सरकार पर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा। मूल्य घटाने या महगाई रोकने के उपाय करने की बजाए सरकार में बैठे लोग उल्टा विपक्षी दलों को ही फ्लॉप करार दे देते है, जबकि जनता के समर्थन से आदोलन किया जाता तो इसी यूपीए सरकार की जड़ें हिल गई होतीं और जनता के सामने त्राहिमाम करती नजर आ रही होती। किसी भी मुददे पर जनता एक बार खड़ी जाए तो सरकारों की तो बात ही छोड़िए, तानाशाहों का सिंहासन तक हिल जाता है।

इस समय महगाई को लेकर विपक्ष एकजुटता का प्रदर्शन कर रहा है और सरकार को घेरने के लिए आदोलन का सहारा ले रहा है, लेकिन विपक्ष के साथ सिर्फ मीडिया ही नजर आ रहा है। मीडिया लोकतंत्र का प्रहरी है और वह अपना दायित्व निभा रहा है, लेकिन राजनेता इसे ही जन समर्थन मानने की भूल कर रहे है और इस बात को लेकर चिंतित नहीं दिख रहे कि जनता उन्हे समर्थन नहीं दे रही।

इसका कारण साफ यही है कि राजनेताओं में राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति की भावना बढ़ गई है, जनता की नजर में आज एक भी दल ऐसा नहीं बचा है, जिस पर वह आख बंद कर विश्वास करने को तैयार हो। भ्रष्टाचार और लापरवाही के कठघरे में जनता सभी को एक समान रखती है, इसीलिए आदोलनों का हिस्सा बनकर अपनी परेशानी और अधिक बढ़ाने को तैयार नहीं है। इस मुददे पर राजनेताओं को स्वच्छ मन से विचार कर आत्ममंथन करना चाहिए क्योंकि जनता की लोकतंत्र के प्रति बढ़ती बेरुखी नक्सलवाद को बढ़ावा देने जैसी लग रही है, जिसके दूरगामी परिणाम बेहद घातक हो सकते है।


http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_6548573.html