Sunday, July 27, 2008

पुरानी यादे ताज़ा करो




मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है।
हाथ लगाओ डर जायेगी
बाहर निकालो मर जायेगी।

पोशम्पा भाई पोशम्पा,
सौ रुपये की घडी चुराई।
अब तो जेल मे जाना पडेगा,
जेल की रोटी खानी पडेगी,
जेल का पानी पीना पडेगा।
थै थैयाप्पा थुश
मदारी बाबा खुश।

झूठ बोलना पाप है,
नदी किनारे सांप है।
काली माई आयेगी,
तुमको उठा ले जायेगी।

आज सोमवार है,
चूहे को बुखार है।
चूहा गया डाक्टर के पास,
डाक्टर ने लगायी सुई,
चूहा बोला उईईईईई।

आलू-कचालू बेटा कहा गये थे,
बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।
बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,
मम्मी ने पैसे दिये हंस रहे थे।

तितली उडी, बस मे चढी।
सीट ना मिली,तो रोने लगी।।
driver बोला आजा मेरे पास,
तितली बोली " हट बदमाश "।

चन्दा मामा दूर के,
पूए पकाये भूर के।
आप खाएं थाली मे,
मुन्ने को दे प्याली मे।


.... इन यादों के लिये शिवानी ने भी जल्द ही कुछ लिख कर भेज दिया...
दिनेश बचपन की याद दिला दी तुमने...कुछ कमी मैं पूरी करने की कोशिश करती हूं...



अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो
अस्सी नब्बे पूरे सौ
सौ में लगा धागा चोर निकल के भागा
राजा की बेटी ऐसी थी फूलों की माला पोती थी...


दिनेश ये यहीं खतम होता है या इसके आगे भी है...ये याद करने के लिए मुझे बचपन में दुबारा लौटना होगा...

मुम्बई से मेरे दोस्त ने ये कवितायें भेजी हैं...

लल्ला लल्ला लोरी,
दूध की कटोरी,
दूध में बताशा,
गुड़िया करे तमाशा.

दो चुटियों वाली,
जीजा जी की साली,
जीजा गये अंदर,
साली को ले गया बंदर,

...और इंतज़ार है

नीतेश ने पहले टिप्पणी की थी तो हौसला बढ़ाया था .. अब दो दिन बाद इस सीरीज़ में इज़ाफा किया है...
मामा गए दिल्ली,
दिल्ली से लाये बिल्ली,
बिल्ली ने मारा पंजा,
मामा हो गए गंजा!!

.....और इंतज़ार है...
वॉयस आफ इंडिया में मेरे सहयोगी प्रोड्यूसर अनिल ने ये लिख कर भेजा है..जस का तस प्रकाशित कर रहा हूं..

दिनेश जी, आपके ब्लॉग पर आकर बचपन की वो यादें ताजा हो गईं जिन पर भागदौड़ भरी इस जिन्दगी के साथ गर्द जम गई थी। एक बार फिर मन में चंचलता अंगड़ाई लेने लगी। जी करने लगा कि बचपन का वो दौर एक बार फिर लौट आए। काश ऐसा हो पाता। मुझे भी एक कविता की चार लाइनें यद हैं...पेश कर रहा हूं...

(1)
मामा मामा भूख लगी
खा लो बेटा मूंगफली
मूंगफली में दाना नहीं
हम तुम्हारे मामा नहीं

(2)
लकड़ी की काठी
काठी का घोड़ा
घोड़े की दुम पर
जो मारा हथौड़ा
दौड़ा-दौडा-दौड़ा
घोड़ा दुम दबाकर दौड़ा। .....


और इंतज़ार है

Thursday, July 24, 2008

राम का शॉट ओ के है




मेरे अन्तर्यामी राम अब टीवी पर हर रोज़ दिख जाते हैं। राम सेतु की खबर में जैसे ही कोई नयी चीज़ जुड़ती है अरुण गोविल( रामायण में राम का किरदार निभाने वाले कलाकार) भावमय मुस्कान के साथ प्रकट हो जाते हैं। रिपोर्ट में केन्द्र सरकार पर गुस्सा बरपाया जा रहा हो या निंदा का कोई और रुप प्रकट किया जा रहा हो मेरे राम मुस्कुराते हुये ही नज़र आते हैं, हर दुख और दर्द से ऊपर मेरे राम का शॉट हमेशा ओ के रहता है...एनडीटीवी की रामायण के राम भी अच्छा अभिनय कर रहे हैं लेकिन राम की पोस्ट पर अभी अरुण गोविल ही काबिज़ हैं। हालांकि अभिषेक बच्चन अगर राम के रोल में आये तो पता नही टक्कर मिलेगी या नहीं...लेकिन फिलहाल आप जब भी मर्यादा पुरुषोत्तम का ध्यान करें अरुण गोविल को ज़रूर भज ले..राम सेतु की खबर पर विजुअल चलाने के लिये अगर आपको सोचना पड़ रहा है तो फिर आप अपने विवेक पर पुनर्विचार कर ले..क्योंकि समन्दर का विजुअल कॉमन होता है..मामला सरकार से जुड़ा है और सरकार के किसी भी आदमी की शक्ल फिलहाल टी आर पी नहीं है..इस खबर पर टीआरपी चाहिये तो राम राम भजिये ...रामानंद सागर के राम हाज़िर..सबसे आसान उप्लब्धि राम की ही है..ये राम संसद में मिल जाते हैं..टीवी पर तो हैं ही.. लेकिन इन्हें मुस्कुराते हुये ही देखियेगा और दिखाइयेगा..राम का स्वरूप क्रोध में जमता नहीं..बस मुस्कुराते हुये दिखाइये..बस फिर क्या...राम का शॉट ओ के है...

दिनेश काण्डपाल

Thursday, July 10, 2008

परिव्राजक ने लिखा था...


बी ए की पढाई के पहले साल में कविता लिखने का शौक चर्राया, उन्हीं दिनों गर्मी. में जब घर (चौखुटिया, रानीखेत ) गया तो एक बाबा जी से मुलाक़ात हुयी। उन्हें भी कविताओं का शौक था, अपना नाम परिव्राजक बताते थे..पहाड़ के पुरुषों में शराब की लत और पानी की कमी पर उन्होंने मुझे कुछ कवितायें दी थी ..कहा था कभी इन्हें छपवा देना..उनकी कुछ लाइनें मुझे याद रहीं..कब छपेंगीं पता नहीं, लेकिन आप यहां पढ़ लीजिये... ...... ..... .....

घिर गया है घाटियों में शोर का अन्धा धुआं
आदमी की शक्ल में हर ओर है अन्धा कुआँ
औरतों के आंसुओं की क़ीमतों पर जाम हैं
द्रोपदी फिर दांव पर है और जारी हैं जुआँ.....

चार लाइनें और....

लो कट गया फिर बांज का पौंधा
एक मटका गिर गया झरने तले औंधां
लोग प्यासे हैं उन्हैं मालूम है फिर भी
वृक्ष झाड़ी पत्थरों पर वार ही कौंधा....
....

परिव्राजक घूमते रहते थे एक जगह से दूसरी जगह कई सालों से मुलाकात नहीं हुयी है..कभी कभी उनकी याद आती है..और भी कवितायें हैं ..ढूढूंगा फिर आप तक पंहुचाऊंगा...दिनेश काण्डपाल

Sunday, July 6, 2008

कितना दर्द है बाबू



आपके सर में दर्द कब कब होता है,जब आप किसी से मिलते हैं तब दर्द होता है या जब किसी के बारे में सोचते हैं तब सर पकता है। अकेले बैठे हों तब दर्द होता है या आस पास कोई बैठा हो तब दर्द होता है, शान्त माहौल में दर्द होता है या
शोर शराबे में दर्द होता है इनमें से अगर कोई और कारण है तो दर्द की पृकृति भी निराली होगी, इनके अलावा एक सरदर्द की वजह और लक्षण मेरे पास भी हैं। ये एक नायाब किस्म का सर दर्द है जो इलेक्ट्रनिक मीडिया के तकरीबन हर कर्मचारी
को होता है। इस दर्द की उत्पत्ति का केन्द्र है चैनल के खामखा का केबिन। ज़ाहिर है यही केबिन पूरे चैनल का रिमोट कंट्रोल लेकर चलता है,ये दर्द पहले इस बड़े अफसर के खोपड़े में होता है ये उस की खुड़क भी हो सकती है जो आपको दर्द के रूप में नज़र
आ रही है, कई सठिया खामखा(वो जो साठ साल की उम्र के आस पास आकर अफसर बने हैं)ऐसी प्लानिंग करते हैं जो दर्द को माइग्रेन में बदल सकती है। ये उस क़िस्म के अफसर है जो टेलीविज़न चैनल चलाने निकले हैं लेकिन टेलीविज़न में बस विज़न ही किया है.टीवी देखने के अलावे इन अफसरों ने आज तक कुछ नहीं किया। खबर का मर्म इनके दिलों
में हुंकारें भरता है आक्रामक होने का नाटक भी इन्हैं जलवा फरोश बनाता है लेकिन इनकी लिखी स्क्रिप्ट पर जब पैकेज कटना होता है तो वाडियों एडिटर से लेकर चैनल एडीटर तक पांच बार मूतने जाते हैं। दर्द यहीं पैदा होता है। ये दर्द पैदा करने का आदेश भी होता है। खामखा की गर्वीली मुस्कान को साइकिल के टायर की तरह पंचर करने का सपना लिये ये प्रो़ड्यूसर
एक अदद डिसप्रिन के लिये तरस जाता है। प्रोड्यूसर को लगता है कि किसने इसको खामखा बना दिया, कुछ जानता भी है साला टीवी के बारे में। स्टोरी पूरी कट गयी तो अध्धा नहीं तो साला बीयर और व्हिस्की का कॉकटेल करना पड़ेगा। सर दर्द कम करने का ये ख्याली पुलाव भर है दरअसल गैस्टिक के मरीज़ से पूछिये थोड़ी सी गैस निकल जाने पर बदबू ही सही पर उसे
अच्छी लगात है पेट की राहत बड़ी अजीब है। न्यूज़ रूम में पसरा सन्नाटा भी सर दर्द बढ़ाता है कई कामचोर और बकलोलों से बना न्यूजरूम तो देखने लायक होता है। यहां आपको आदर्श टीवी पत्रकारिता के मापदंड़ों पर मां बहन करते कई बड़े नाम मिल जायेगें लेकिन एक ब्रेकिंग पर आगे का पैकेज क्या होगा ये सोचने में इनकी दो डिब्बियां खत्म हो जायेंगी। इनके पास
स्क्रिपट के लेकर कई अच्छे शब्द हैं लेकिन खायें अपनी मां की कसम ये बकलोल की एक बाक्य को ज़रा सुधार दें। दरअसल जिस खामखा का ज़िक्र मैने ऊपर किया वो इन बकलोलों का बाप है,वो इसी सेना के बूते बाप बना है। सर दर्द पैदा करने के अभूतपूर्व आइडियों से ये हमेशा लैस रहते हैं जो भी काम करते दिखा वो इनके सर में दर्द पैदा करने लगता है इसलिये
ये बकलोल इस बात की नौबत ही नहीं आने देते कि कोई काम कर सके। बाप से लेकर ये उनकी औलादें हर तरफ दर्द बांटती हैं। दर्द देख कर भी होता है सुनकर भी अकेले में भी और भीड़ में भी अब दर्द तो बड़ा होगा ही आखिर खामखा से चलकर आया और औलादों ने और बड़ा कर दिया..घबराने की ज़रूरत नहीं ज़्यादा दिन नहीं चलेगा, भरोसा रखिये सब ठीक होगा

दिनेश काण्डपाल