Thursday, July 10, 2008

परिव्राजक ने लिखा था...


बी ए की पढाई के पहले साल में कविता लिखने का शौक चर्राया, उन्हीं दिनों गर्मी. में जब घर (चौखुटिया, रानीखेत ) गया तो एक बाबा जी से मुलाक़ात हुयी। उन्हें भी कविताओं का शौक था, अपना नाम परिव्राजक बताते थे..पहाड़ के पुरुषों में शराब की लत और पानी की कमी पर उन्होंने मुझे कुछ कवितायें दी थी ..कहा था कभी इन्हें छपवा देना..उनकी कुछ लाइनें मुझे याद रहीं..कब छपेंगीं पता नहीं, लेकिन आप यहां पढ़ लीजिये... ...... ..... .....

घिर गया है घाटियों में शोर का अन्धा धुआं
आदमी की शक्ल में हर ओर है अन्धा कुआँ
औरतों के आंसुओं की क़ीमतों पर जाम हैं
द्रोपदी फिर दांव पर है और जारी हैं जुआँ.....

चार लाइनें और....

लो कट गया फिर बांज का पौंधा
एक मटका गिर गया झरने तले औंधां
लोग प्यासे हैं उन्हैं मालूम है फिर भी
वृक्ष झाड़ी पत्थरों पर वार ही कौंधा....
....

परिव्राजक घूमते रहते थे एक जगह से दूसरी जगह कई सालों से मुलाकात नहीं हुयी है..कभी कभी उनकी याद आती है..और भी कवितायें हैं ..ढूढूंगा फिर आप तक पंहुचाऊंगा...दिनेश काण्डपाल

No comments: