हमारे कुमाऊं में भतरौचखान की मिर्च सबसे प्रसिद्ध है। इसका स्वाद भी निराला होता है। बेहद तीखी, जीभ को छू भी ले तो जला दे। घर में भतरौचखान की मिर्च कुट रही हो तो कोई टिक नहीं सकता। चारों तरफ खौसेंन। चौखुटिया से लौटते समय भतरौचखान में रायता और आलू के गुटके खाने लगा तो यही मिर्च दिख गई। बस फिर क्या था दिमाग कुलबुलाया और किचन गार्डन की दबी हुई उमंगे जाग गईं, फौरन मिर्च खरीद ली। इस बीच नोएडा में अपना घर भी हो गया।
उत्साह इतना कि पिछले साल (2017) अक्टूबर में ही मिर्च के बीज गमले में डाल दिए। पता ही नहीं था कौन सा सीज़न, कब बोनी है, कब उगेगी, कब फलेगी, कुछ पता नहीं..बस बोना था सो बो दी। नवंबर तक अंकुर फूट गया और दिसंबर तक तो पेड़ आधे फीट का हो गया। मन खुशी से झूम रहा था, आज तक जीवन में कुछ खास तो किया नहीं चलो पौंधे से सीधे मिर्च तोड़ कर खाने पर ये अहसास तो होगी कि कुछ उगाया है। इसी भाव का ध्यान करके सीना फूला जा रहा था। देखते देखते दिसंबर गुज़र गया..फिर जनवरी आ गई..फरवरी भी निकल गई, लेकिन मेरी मिर्च का पौंधा आधे फीट से एक सेंटीमीटर भी नहीं बढ़ा। कई बार मन किया कि अपनी नाकामी के इस स्मारक को तोड़ दूं लेकिन हिम्मत ही नहीं जुटा पाया। दस बार मां को पूछा तो वो भरोसा देती रही कि आ जाएगी तू चिंता मत कर। पहले लगा कि ठंड की वजह से पौंधा बढ़ नहीं पाया होगा फिर मार्च में धूप कड़ी होने लगी तो उम्मीदें फिर बढ़ने लगीं। पानी, खाद नियमित दी जा रही थी, कृषि भवन से लेकर पूसा तक के कृषि वैज्ञानिकों की रिसर्च से बनी खाद डाल चुका था, लेकिन फिर भी कुछ नहीं हुआ। अप्रैल गुज़रा, मई निकल गया लेकिन मेरी मिर्च का पौंधा नहीं बढ़ा। दस बार गमले की जगह बदल दी, कहीं धूप कम है तो कहीं ज्यादा, सारे हिसाब किताब देख लिए लेकिन इस बीमार का इलाज नहीं हुआ।
इसी बीच मां फ्लैट में आई, फिजिकल वेरिफिकेशन किया तो उसने फिर भरोसा दिया, उखाड़ मत आ जाएगी मिर्च। रोज़ सुबह उसे देखता और अपने विश्नवास को टटोलता, लेकिन दोनों ठूंठ बने हुए थे। इस बीच जून के महीने में थोड़ा हलचल हुई, कुछ नई पत्तियां आ गईं, लेकिन इतनी वृद्धि मुझमें कोई संचार नहीं कर सकी। जुलाई तक पौंधा और बढ़ा, एक बार फिर अपनी भी उम्मीदों के अंकुर फूटने लगे। अगस्त में तो खूब सारे पत्ते आए, नई शाखाएं आईं और पेड़ हरा भरा हो गया। देखते ही देखते सितंबर की शुरुआत में मिर्च के सफेद फूलों से गमला भर गया, लेकिन अफसोस कि बारिश में सारे फूल झर गए। मैं फिर अपना सा मुंह लेके रह गया, लेकिन उम्मीद नहीं हारी।
पेड़ की खिदमत जारी रखी, नियमित पानी और महीने में एक बार खाद का नियम नहीं तोड़ा। सितंबर के बीच में फिर इक्का दुक्का फूल खिलने लगे, फिर उम्मीद पैदा हो गई। इस बार मेरी मेहनत पूरे शबाब के साथ रंग बिखेरने वाली थी...25 सितंबर के बाद जो मिर्च आनी शुरू हुई तो वो आती ही रही। गुच्छे पर गुच्छे। तीखी इतनी की जीभ जला दे।
इधर भारत ने एशिया कप का खिताब जीता और उधऱ मैने मिर्च की ट्रॉफी। मोदी को चैंपियंस ऑफ द अर्थ का अवार्ड मिला तो घर में मैने बेटे का भरोसा जीता कि गमले में भी कुछ हो सकता है। खैर खूब मिर्च फली है, नज़र आप लगा नहीं सकते क्योंकि मिर्च को नज़र नहीं लगती। खानी हो तो घर आना पड़ेगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है बल।