पाकिस्तान के ज़ख्मों पर जब जब खुजली होती है वो उन्हें नोचने लगता है। ये ज़ख्म कुदरती हैं। ठीक वैसे ही जैसे किसी बच्चे को पैदाइशी रोग होता है। कुछ रोगों का इलाज हो जाता है लेकिन अधिकांश पैदाइशी रोग लाइलाज होते हैं। उनका अन्त मृत्यु के साथ ही हो पाता है। पाकिस्तान जब जब अपने ज़ख्मों को नोचता है तब तब वो भारत पर हमले करता है। पहले ये हमले आमने सामने होते थे..1971 के बाद हमले साये में होने लगे।
हाल फिलहाल के दिनों में नियंत्रण रेखा और अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर हो रही गोलीबारी उसी खुजली का नतीजा है। इस ज़ख्म को पाकिस्तान इतनी बार खुजला चुका है कि वो उसके लिये नासूर बन चुका है। उसे इस ज़ख्म का इलाज ही खुजलाने में नज़र आता है। ये कहावत सब जानते हैं कि वक्त कई बार ज़ख्मों को भर देता है, लेकिन उसके लिये भी शर्त ये होती है कि ज़ख्म खुजलाये न जांय।
भारत से अलग हुआ पाकिस्तान जिस मकसद से जीता है उसे हिंदुस्तान में बैठकर समझना थोड़ा मुश्किल है। पाकिस्तान की संरचना का आधार ही अलग है। वो अपने नागरिकों के हितों की रक्षा करने वाले देश से ज्यादा भारत को परेशान करने वाले एजेंडे को अपनी राष्ट्रीय पहचान बना चुका है। उसकी सांसे तब तक चलती हैं जब तक उसकी ज़मीन से भारत के खिलाफ उथल पुथल की या तो साज़िश हो रही हो या फिर गोलाबारी।
तय मान लीजिये इसमें पाकिस्तान की सियासत का कोई कसूर नहीं है। बिलावल भुट्टो कशमीर पर बयान देकर कितना ही अपना मज़ाक उड़ावा लें लेकिन पाकिस्तान के किसी नेता की ये ताकत ही नहीं कि वो कशमीर ये भारत के साथ अपने रिश्ते के बारे में कोई फैसला ले सके। अगर ये संभव होता तो ताशकंद, शिमला और लाहौर के घोषणा पत्र पाकिस्तानी सरकार के दफ्तरों में धूल नहीं खा रहे होते। इस बार संयुक्त राष्ट्र के अपने संबोधन में ही नवाज़ शरीफ कह चुके हैं कि अब शिमला समझौता कोई समाधान नहीं देता इसलिये उससे आगे बढ़ा जाय। अगर किसी समझौते की बारीकियों में न जाना चाहें तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा और उसके बाद करगिल के युद्ध का प्रत्यक्ष उदाहरण ले लीजिये। यही बात शिमला समझौते के तुरंत बाद भी दोहराई जा सकती थी, लेकिन उस वक्त पाकिस्तान के पास इतनी हिम्मत नहीं बची थी। ताशकंद के बाद देख लीजिये 1965 में समझौता हुआ और 1971 में वो फिर लड़ाई के लिये तैयार था। पाकिस्तान पाई पाई जोड़ता है, विदेशी ताकतों से अपना रोना रो रो कर पैसा ऐंठता है और जो कुछ बच जाता है उसे भारत के खिलाफ झोंक देता है।
पाकिस्तान की सेना वहां की विदेश और रक्षा नीती को इस तरह से कस कर पकड़ के रखा है कि पाकिस्तान के सियासतदां लाख सर पटक लें लेकिन वो सेना के इस चंगुल से नहीं छूट सकते। अगर पाकिस्तान की सियासत के सबसे ताकतवर नेता का नाम लेना हो तो मुहम्मद अली जिन्ना के बाद जुल्फीकार अली भुट्टो का ही नाम ज़ेहन में आता है। ये वही भुट्टों हैं जिन्होंने 1971 में पाकिस्तान की कमर टूटने के बाद शिमला में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री से समझौता किया और दूसरे ही दिन सेना के दबाव में उससे मुकर गये।
अब तो पाकिस्तान परमाणु शक्ति संपन्न देश है इसलिये भारत और पाकिस्तान के बीच किसी निर्णायक युद्द की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुछ विश्लेषक तो यहां तक मानते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच के संघर्ष का अंत आने वाली कुछ पीढ़ियां तो नहीं देख पायेगी। इस संघर्ष का अंत बड़े बदलाव से शुरु होगा। ये बदलाव तब होगा जब पाकिस्तान की सेना उनके प्रधानमंत्री का सम्मान करेगी। जब वहां भारत के विरोध को राष्ट्रीय एजेंडे से हटा कर अपने विकास का एजेंडा बनाया जाएगा।
उम्मीद की जाय की ये पीढ़िया इस बदलाव की करवटें तो देख ही लें। आखिर दोनों तरफ इंसान ही बसते है।