Wednesday, April 22, 2009
मां के आंसुओं का जवाब जनता क्यों देगी वरुण ?
दिनेश काण्डपाल
क्यों भई वरुण गांधी? मां के आंसुओं का हिसाब जनता क्यों देगी? क्या ये आंसू करगिल में शहीद हुये कैप्टन सौरव कालिया की मां के हैं? या कैप्टन विक्रम बत्रा की मां रो रही हैं जिनका बेटा करगिल जीत कर शहीद हो गया। इन बहादुरों की मांताओं की आंखों से आंसूं नहीं निकलते। मुम्बई हमले के बाद एनएसजी के मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की मां की आंखें याद हैं आपको, वो बहादुर बेटे की मां हैं। आंसू टपका कर ये अपने बेटे के शौर्य को कम नहीं करतीं। ये मांताऐं बेहद खामोशी और दृढ़ता से फिर से ऐसे ही शूरवीर बनाने में जुट जाती हैं जो फिर देश पर कुर्बान हो सकें। ये शौर्य और सहास की प्रतिमायें अपने आंसुओं का हिसाब मांगने चुनावी सभाओं में नहीं जातीं। कैप्टन सौरव कालिया जब शहीद हुये उसके बाद रक्षा बन्धन का त्यौहार आया, तब भी करगिल की लड़ाई चल रही थी। ऑल इंडिया रेडियो के लिये एक स्पेशल फीचर बनाने के लिये मैं सौरव की बहन से मिला, भरे हुये मन से मैने उनसे पूछा कि इस बार राखी पर सीमा पर खड़े फौजियों के लिये क्या संदेश देना चाहेंगीं। जो जवाब सौरव कालिया की बहन ने दिया उससे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। उन्होंने कहा कि मैं अपने फौजी भाईयों से बस इतना ही कहना चाहती हूं कि बस अब हमारी तरफ से कोई शहीद नहीं होना चाहिये..अब जो भी लाश गिरे वो दुश्मन की होनी चाहिये। ये हमारे देश की मां बहनों का बानगी है।
क्या नौजवान नेता मां के आंसुओं को ढा़ल बनाता है ?
एक नौजवान नेता के चुनावी भाषण में क्या मां के आंसुओं का हिसाब मांगा जाना चाहिये। क्या मां के ऊपर कोई ज़ुल्म हो गया है। क्या मां को किसी ने कुछ कर दिया है। मां के आंसू तो अपने बेटे के लिये निकले हैं और बेटे की करनी पर कारवाई चल रही है, इसे देख कर ही तो मां रोई है। बेटे को कष्ट में देखेगी तो मां तो रोयेगी ही। क्या वरुण का कष्ट ऐतिहासिक कष्ट है। क्या मेनका के आंसू इतिहास बदलने जा रहे हैं। वरुण किस बात पर अपनी मां के आंसुओ का हिसाब मांग रहे हैं। हज़ारों मांओं की आंखों से आंसू पोछने की ज़िम्मेदारी जिसे अपने कंधे पर लेनी चाहिये वो अपनी मां के आंसुओं को पोछने के लिये वोट मांग रहा है।
कोई काम की बात क्यों नहीं करते हैं वरुण ?
कैसी वाहयात बात करते हैं ये नेता कि मायावती मां होती तो बेटे का दर्द जानती। मेनका का बेटा, बेटा और दूसरे के बेटे का क्या। कितने बेकसूर जेलों में सड़ रहे हैं उनका मेनका ठेका क्यों नहीं ले रहीं। वरुण ने जनता के बीच जाकर भाषण दिया है। अच्छा है या बुरा है, सही है या गलत है ये फैसले करने के लिये व्यवस्थायें लगी हुयी हैं। बड़ी अजीब बात है आप संवैधानिक संस्थाओं के सहारे भी चल रहे हैं, फिर आप अपने भाषण में भी मां के आंसुओं का हिसाब मांगने लगते हैं। जहां आपको ये बताना चाहिये कि आप जनता की सेवा किस तरह से करेंगे वहां आप मां के आंसुओं की ढ़ाल लेकर खड़े हो जाते हैं। अपने विरोधियों को आप ओसामा बिन लादेन बताने लगते हैं लेकिन आप क्या करेंगें ये बात आपकी ज़बान पर ही नहीं आती।
वरुण को इमोशनल मुद्दा ही क्यों सुहाता है?
क्या बात है? आखिर वरुण को इमोशनल मुद्दे ही क्यों रास आते हैं? पर्चा दाखिल करने से पहले वरुण ने जो भाषण दिया उसे कोई मनीषी आखिर बताये कि उसमें जनता के कौन से हित की बात की गयी है। पीलीभीत का विकास कैसे होगा। वहां की जनता की परेशानियां क्या हैं ये वरुण के भाषणों का हिस्सा क्यों नहीं होता है। हर वक्त इमोशनल कर देने वाली बांते। हिन्दू श्रोता खड़े हैं तो उनकी धार्मिक जज़्बातों वाली इमोशनल बाते कर दीं, जब सबकी नज़रें कड़ी हो गयीं तो मां के आंसुओं का हिसाब करने की बात करने लगे। राजनीति में वैसे ही पढ़े लिखे नौजवानों का टोटा होता जा रहा है, कोई राजनीति में आना ही नहीं चाहता। नेता पुत्र अपना वरचस्व बनाये हुये हैं ऐस में वरुण ज़रा अपने मन में पूछें कि उन्होंने कौन से आदर्श स्थापित कर दिये हैं।
क्या सिखा रहे हैं वरुण?
वायस आफ इंडिया पर एक टॉक शो में मैने बाहुबली नेता पप्पू यादव से पूछा कि आज के नौजवान पप्पू यादव से क्या सीखे....जो जवाब पप्पू ने दिया उस से मुझे शर्म आ गयी। पप्पू यादव ने कहा कि क्या बात कर रहे हैं आप आज के नौजवान हमसे कई बातें सीख सकते हैं..वो हमसे सीख सकते हैं कि कैसे लगन से जनता की सेवा की जाय..गरीबों की मदद कैसे की जाय..फिर हड़बड़ाते हुये पप्पू ने कहा और भी कई सारी बातें है जो नौजवान हमसे सीख सकते हैं ...लेकिन एक ठोस बात पप्पू यादव अपने बारे में नहीं बता सके कि आज का नौजवान पप्पू से क्या सीखे।
यहां पर मैं तुलना नहीं कर रहा हूं लेकिन अगर वरुण से भी यही सवाल पूछा जाय तो क्या जवाब आयेगा। वरुण क्या ये बतायेंगें कि जहां जनता को विकास की रोशनी दिखाने की बात करनी जाहिये वहां इमोश्नल तीर कैसे चलाये जाते हैं ये कोई नौजवान उनसे आकर सीख ले। राष्ट्रीय स्तर का नेता बनने का सपना देखने वाली वरुण क्या इस मुगालते में हैं कि वो इमोश्नल मुद्दों पर बहका लेंगें
एक तो नोजवान वैसे ही वोट देने घर से बाहर नहीं आ रहा ऊपर से ऐसे नेता अगर हो गये तो समझो बज गया लोकतंत्र का बैंड।
हम भी क्या इमोश्नल वोटर ही बने रहेंगें?
जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक भारत एक खोज पर जब श्याम बेनेगल ने धारावाहिक बनाया तो उसमें चाणक्य सेल्यूकस के दूत से कहते हैं कि भारतीय जनमानस मूलत: भवावेश में काम करता है इसलिये सोचने का शक्ति कई बार कुंद पड़ जाती है। इसी बात का फायदा उठा कर हर नेता ने इस जनमानस को हमेशा गलत दिशा दिखलायी है। हम क्या कर रहे हैं। हम भी क्या इमोश्नल वोटर ही बने रहेंगें। अगर आपने गजनी फिल्म दखी है तो उसमें आमिर का एक बेहतीरन डॉयलॉग है उस डायलाग में आमिर कहते हैं कि इंसान को जज़्बातों के साथ काम करना चाहिये, जज़्बाती होकर नहीं। इस डायलॉग से हिन्दुस्ताने के ज़यादातर वोटरों को सीख लेनी चाहिये। फर्क तो करना ही होगा। ये भी देखना होगा की कैप्टन सौरव कालिया, कैप्टन विक्रम बत्रा और मेजर संदीप उन्नीकृषण्न कीं मां क्यों अपने बेटे की शहादत पर आंसू नहीं बहाती हैं और वहीं,वोट मांगने के लिये बेटा अपनी मां के आंसुओं का हिसाब मांगने के लिये जनता को भड़काता है।
जूतामार लोग कायर हैं............
दिनेश काण्डपाल
बुश पर जूता चला तो फिर सीधा चिदम्बरम उसकी चपेट में आये। फिर नवीन जिन्दल और अब आडवाणी। जूता चलाने वालों सें मैं पूछना चाहता हूं कि क्या उनकी इतनी हिम्मत है कि वो मुख्तार अंसारी, शाहबुद्दीन, पप्पू यादव या डीपी यादव पर जूता चला सकते हैं। हमारे देश पर अभी तक जिस भी नेता पर जूता चला है उस पर कोई भी हत्या या लूट का मुकदमा नहीं है। उन पर बूथ लूटने का आरोप भी नहीं है और आप जब उनको हिन्दुस्तान का नेता कहते हैं तो आपको शर्म भी नहीं आती। जूता चलाने वाले ये कायर उन नेताओं पर जूता चलाने की हिम्मत भी नहीं कर सकते जो संसद में सवाल पूछने के बदले पैसे मांगते हैं, उन पर भी जूता नहीं चला सकते जो अपनी बीबी के टिकट पर पराई नार को विदेश ले जाकर कबूतरबाज़ी करते हैं। चौरासी दंगें के दोषियों पर भी जूता नहीं चला सकते। अपना गुस्सा निकालने के लिये सस्ता रास्ता चुनने वाले इन कायरों को हीरो मत बनाईये। ये बेहद कमज़ोर लोग हैं। इनका कोई दीन ईमान नहीं हैं।
जूता चलाने से पहले ये कायर एक बार ये तो सोच लेते कि किस पर जूता चला रहे हैं। जरनैल सिंह हों या पावस अग्रवाल सब के सब कमज़ोर दिल और दिमाग के इंसान हैं। आडवाणी, चिदंबरम या नवीन जिन्दल कौन हैं, क्या ये जानते हैं ? मानता हूं एक लाख गुनाह किये होंगे इन तीनों नेतओं ने लेकिन क्या इनकी सज़ा इन तुच्छ लोगों का जूता है। 50 साल जिस शख्स ने इस हिन्दुस्तान की राजनीति को दिये उन आडवाणी की तरफ पावस अग्रवाल ने चप्पल उछाल दी। तिरंगे झंडे के लिये जिसने अपने जीवन के आधे दिनों तक लड़ाइ लड़ी उसके ऊपर एक शराबी ने जूता उछाल दिया। जो शख्स हिन्दुसातन में आर्थिक सुधारों को लाने वाली कोर दीम का हिस्सा रहा है, कई बार वित्त मंत्री और हमारे देश का गृह मंत्री है उस पर जूता उछालने के बाद जरनैल सिंह माफी मांगता है.
गुस्सा बिलकुल जायज़ है। इस व्यवस्था से भी और इस राजनीतिक दशा से भी। ये भी सच है कि पिछले साठ सालों में हर पार्टी ने इस देश को कई तरह से ठगा है, लेकिन इसके लिये जिस पर जूता चलना चाहिये क्या ये वही लोग हैं। क्या जूते का निशाना सही लोगों पर है। क्या आ़डवाणी, चिदंबरम और नवीन जिन्दल इस कुव्यवस्थाओं के सीधे दोषी हैं। चौरासी के दंगो पर क्या चिदम्बरम पर जूता पड़ना चाहिये? हरियाणा की खराब व्यवस्था के लिये क्या नवीन जिन्दल ज़िम्मेदार हैं ? एमपी में आडवाणी पर जूता चलाने वाले पावस आग्रवाल ने आरोप लगाया है कि आडवाणी नकली लौह पुरुष हैं, क्या इस बात पर आडवाणी को चप्पल मार देनी चाहिये ?
जूता मारना बिल्कुल ठीक है। बिल्कुल जूता मारना चाहिये। लेकिन निशाना तो ठीक कीजिये। कई गंदे सफेदपोश हैं जो फूलों के हार पहन रहे हैं। चिदम्बरम ने जरनैल को माफ कर दिया। आडवाणी और नीवन जिन्दल ने कुछ नहीं कहा सोचिये ये जूता शाहबुद्दीन, पप्पू यादव या डीपी यादव पर चला होता तो क्या वो माफ कर देते। जूता मारने का साहस करने वाले क्या इतने अंधे हो गये हैं कि उन्हैं इन उन्मादी साहस को दिखाने का दूसरा रास्ता नज़र नहीं आ रहा। सम्हाल कर रखिये अपने जूते को और सही निशाना तलाशिये फिर चलाईये......बड़ा कीमती है जूते का निशाना............
Tuesday, April 14, 2009
पीएम के लिये टैलेंट हंट- जनता जज नहीं....
दिनेश काण्डपाल
इस बार पीएम के लिये टेलेंट हंट चल रहा है। उम्मीदवार हैं- मनमोहन सिंह, राहुल गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, मायावती, शरद पवार। आपको करना है वोट, लेकिन ध्यान रहे आप जज नहीं हैं। इस टेलेंट हंट के प्रतियोगियों को करना क्या है ये तो पूछिये ही मत। वो सब कुछ करिये जो नहीं किया जाता। दूसरे की कितनी जड़ खोद सकते हैं ये पहली क़ाबिलियत है। कब्रिस्तान की ट्रेनिंग अगर आपने ली है तो वो काम आ सकती है क्योंकि जो जितने गड़े मु्र्दे उखाड़ेगा उसे उतनी ही फुटेज मिलेगी। भाषण में नयी योजनायें, विकास की बातें नहीं चाहिये ये अनिवार्य शर्त है नहीं तो तालियां भी नहीं मिलेंगी और टीआरपी भी नहीं।
पांच राऊंड....
इस टेलैंट हंट में कई राउंड हैं..हर राऊंड के बाद परफार्मेंस बदल देनी होगी। इस हंट के वैसे तो कई जज हैं लेकिन कुछ जज तो ऐसे हैं जो खुद इस वक्त इस शो में हिस्सा ले रहे हैं। मायावती इस शो में अभी तो प्रतियोगी के तौर पर जुड़ी हैं लेकिन आने वाले वक्त में वो जज बनकर विजेता की घोषणा भी कर सकती है। शरद पवार अपना जजमेंट तो दे चुके हैं लेकिन वो कभी भी प्रतियोगी बनकर खेल में शामिल हो सकते हैं। कई छिपे हुये जज भी हैं जिनकी तमन्ना भी इस शो में परफार्मेंस करने की है। लालू-मुलायम-पासवान सब के सब जज हैं।
वाइल्ड कार्ड एंट्री-----
वाइल्ड कार्ड एंट्री का भी प्रावधान है इस टेलेंट हंट में। वाइल्ड कार्ड से एंट्री लेंगें राहुल गांधी। आप मत चौंकियेगा अगर भैरो सिंह शेखावत ये कार्ड आज़माते नज़र आ जांय तो। राहुल बाबा तो वाइल्ड कार्ड का जन्म सिद्ध अधिकार लेकर पैदा हुये हैं इस लिये इस हंट में उनका शो ज़बर्दस्त रहने वाला है।
पहली परफार्मेंस.....
कुल पांच रांउड होंगे उसके बाद होगा ग्रेंड फिनाले। पहले राउंड की परफार्मेंस हो चुकी है। राग वरुण पर आधारित सैट बीजेपी ने लगाया जिस पर आडवाणी अपने ऱुंधे हुये और भर्राये गले से कई गीतों को एक ही सुर में गा चुके हैं। उनके कोरस में मोदी गुड़िया बुड़िया की बोलियां लगा चुके हैं। अरुण जेटली हंट की शुरुआत में ही कमर लचका के अपने ठुमके का अहसास करवा चुके हैं। जवाब में कांग्रेस का सैट लगा है राहुल राग पर...इस सैट पर जो धुन बज रही है उसमें बुढ़ापे और जवानी का फ्यूज़न है...एक ही सैट पर दो लोग परफार्मेंस दे रहे हैं। मनमोहन आफिशियल प्रतियोगी हैं लेकिन कोरस राहुल मुख्य अभिनेता पर भारी पड़ रहे हैं। कोरस की भुमिका में ही सोनिया भी मुख्य अभिनेता मनमोहन को पछाड़ कर अपने झटके दे देती हैं। पूरे शो में इस बात का कन्फ्यूज़न रहा कि राहुल स्टेज पर हैं या मनमोहन। पहले राऊंड के आखिर में प्रियकां की सरगम भी सुनने को मिली। उन्होंने अपने कोयल गान से नरेन्द्र मोदी की लय बिगाड़ने की कोशिश की लेकिन तान खत्म हुयी भाई के गुणगान पर। पहले राउंड में एक कोरस गा तो रहा था पर किसके लिये पता नहीं चला यो कोरस था अमर सिंह। इसके अलावा बहन जी ने भी परफार्मेंस दी लेकिन मेनका ने उनके तानपुरे के तारों को दो तीन दिन तक अपने में ही उलझा लिया। खैर बहन की परफार्मेंस जैसी भी हो उनका कांन्फिडेंस ज़बर्दस्त है।
तार तार हुयी इज़्ज़त...
पहले राउंड में शोर बड़ा रहा, जिसके हाथ में जो तीर आया उसने वही चलाया न तो अपनी इज़्जत देखी न ही दूसरों की। हमारे देश के प्रधानमंत्री पद के सब उम्मीदवार अपनी क़ाबिलियत से ज़्यादा बोलने की माहमारी की चपेट में आ चुके हैं। एक दूसरे की इज़्जत करना तो छेड़िये बेइज़्जती न कर दें इसी की गनीमत मनाईये। कोई किसी को कमज़ोर कह रहा है तो कोई लोहे को प्लास्टिक साबित करने में जुटा है। लेकिन फिर भी इस टेलेंट हंट में एक नयी बात है। वो नयी बात है नये सुकुमार का कन्फ्यूज़न और मौजूदा प्रधानमंत्री का सर दर्द।
प्रियंका का कन्फ्यूज़न..............
प्रियंका गांधी के बयान ने ये कन्फ्यूज़ थोड़ा और बढ़ा दिया है एक तो खुद देश के प्रधानमंत्री कभी कभी कन्फ्यूज़ दिखते हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि प्रधानंमत्री पद के उम्मीदवार वही हैं या उनको रहुल के लिये प्रचार करना है। जब से चुनावी सीज़न शुरू हुआ है तब से कम से कम तीन बार मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि राहुल में प्रधानमंत्री बनने की क़ाबिलियत है। पूरे देश में बहस हो रही है कि प्रधानमंत्री के लिये वोट आडवाणी के लिये दें या मनमोहन के लिये लेकिन प्रियंका के साथ साथ कांग्रेस के कई नेता राहुल को बीच में ले आते हैं। सोमवार 14 अप्रेल को तो अपनी बहन के बयान के लिये खुद राहुल बाबा को सफाई देनी पड़ी। राहुल ने कहा नहीं भाई नहीं मनमोहन ही प्रधानमंत्री के उम्मीदवार हैं।
खानदानी प्रधानमंत्री............
एक सवाल जो हर प्रेस कांफ्रेस में निकल आता है वो यही है। कांग्रेस के पीएम राहुल गांधी या मनमोहन। लाख बार सवाल हो चुका लाख बार जवाब। अब फिर सवाल क्यों पूछा जाता है। सवाल कोई भी हो जवाब यहीं होता है कि राहुल बाबा में पीएम बनने का क़ाबिलियत है। क्या बात है... क्या इस टेलेंट हंट में वोट किसी के नाम से मांगे जायेंगे और गिनती किसी के नाम पर होगी कहीं ऐसा तो नहीं है? वैसे याद आ रहा है आडवाणी और मोदी को लेकर ये टैक्नीक बीजेपी भी आज़माने वाली थी। लेकिन वहां ऐसा होता तो सर फूट जाते सो नहीं हुआ। लेकिन कांग्रेस में सर फूटने की नौबत नही आ सकती। वहीं मैडम है मैडम जो कह दिया वही करना है।
जो भी हो इस टेलेंट हंट में बड़ा मज़ा आ रहा है जनता को, वोट डालने से पीएम तय होगा या नहीं ये तो पता नहीं लेकिन हर रोज़ नये नये बयान तमाशा दिखा जाते हैं और हम तो हैं हीं पुराने तमाशबीन। तमाशा देखेंगे और घर चले जायेंगें। ये लो, ये भी खूब कहीं घर कहां जायेंगें तमाशा तो घर पर ही टीवी में दिख रहा है। चलिये तमाशा ही देख लेते हैं, हम केवल टेलेंट हंट देखने के अधिकारी है ...जज बनने का दुस्साहस मत कीजियेगा।
Friday, April 10, 2009
क्यों न झांके तुम्हारी ज़िन्दगी में ?
दिनेश काण्डपाल
क्या आपको लगता है कि किसी नेता के व्यक्तिगत जीवन से हमें कोई लेना देना नहीं रखना चाहिये। हमको तो बस ये देखना चाहिये कि कैमरे के सामने नेताजी ने क्या कहा और क्या किया। इन नेताओं का व्यक्तिगत जीवन आखिर होता क्या है। सरकारी कोठी के अन्दर संसद में सवाल पूछने के लिये नोट मांगना व्यक्तिगत है या सार्वजनिक। प्लेन में अपने साथ दूसरे की बीबी को दूसरे देश ले जाकर कबूतरबाज़ी करना व्यक्तिगत है या सार्वजनिक। उदार दिल के लोग इस बात के लिये आसमान सर पर उठा लेंगे कि नेताओं के व्यकितगत जीवन में नहीं झांकना चाहिये। किसी और की निजी ज़िन्दगी से असर पड़ता हो न पड़ता हो लेकिन नेताओं की निजी ज़िन्दगी तो जनता की ही है ना सर। हमारा एक अदद निजी वोट जो बेहद निजी निर्णय है, वो एक नेता को जाता है तो हमारी निजता जब उसके लिये है तो उसकी निजता हमारे लिये कैसे न हो। ये कैसे हो सकता है कि हमारा नेता कुछ भी करे और ये कह दे कि ये निजी है। ये तो कोरी बहानेबाज़ी हो गयी कि ये मामला निजी है। इसी निजीपन से जब बात आगे बढ़ती है तो सामने आता है व्यक्तिगत आरोप।
इंटरनेट पर एक अखबार की वैबसाईट में एक पोल चल रहा है, इसका सवाल है "चुनाव प्रचार के दौरान नेताओं द्वारा एक—दूसरे पर व्यक्तिगत छींटाकशी करना ?" जवाब में अधिकाशं पाठकों का कहना है कि व्यकितगत छींटाकशी से बचना चाहिये। अब आप ही बताइये व्यक्तिगत छींटाकशी में क्या बुराई है। हमारे नेता जो कृत्य करते हैं वो खुद तो कभी बताने से रहे अब अगर उनके विरोधियों ने ये बीड़ा उठा लिया है तो मेरे ख्याल से तो ठीक ही है। बहुत सारे लोग इस तर्क से असहमति जताते हुये मर्यादा की सीमा का उदाहरण रख सकते हैं लेकिन अगर व्यकितगत आरोप गलत हैं तो मर्यादा का हनन तो बिल्कुल नहीं होता। और ज़रा गंभीरता से सोचिये कि जब भी हम अपने नेताओं के बारे में सोचते हैं क्या मर्यादा कभी हमारे ज़ेहन में कुलबुली करती है। आज क्या इस बात का कॉम्पटीशन नहीं चल पड़ा है कि किसकी मर्याद कितनी गिरी हुयी है। एक नेता की करतूतें तब आपको शर्मसार करती हैं जब कभी भी आप उसे इस महान देश के सन्दर्भ में देखते हैं। दुनिया हमारे लोकतंत्र के गुण गाती है लेकिन क्या हमें हमारे नेताओं पर गर्व है।
हम अपने आदर्श नेताओं के बारे में जब भी खुद पढते हैं या अपने बच्चों को पढाते हैं तो उनका जीवन चरित्र ही उन्हें बताते हैं। गांधी के बारे में हम ये जानते हैं कि उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला। क्या नेता किसी आदर्श से कम है, हम क्यों अपने जलसों में नेताओं को बुलाते हैं, क्यों अपनी दुकानों के रिबन उनसे कटवाते हैं। ये नेता ही तो हमारे देश के सैनिकों के सीने पर मैडल लगाते हैं। इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी वाला नेता का व्यकितगत जीवन अगर खराब तो बताईये कैसै चलेगा।
चलिये ये पता करने की कोशिश करते हैं कि व्यकितगत छींटाकशी क्या नुकसान करती है। दरअसल व्यक्तिगत छींटाकशी से कई बातें सामने आ जाती हैं। एक तो वो जो सीधे नेता का नाम लेकर आरोप लगाता है दूसरा वो जिस पर आरोप लग रहे होते हैं। दोनों की मर्यादा आपके सामने खुले आम आ जाती है, हुजूर ऐसे ऐसे तथ्य सामने आ जाते हैं जो आपको आरटीआई से भी नहीं मिलेंगें। इन आरोपों का मतलब समझिये, बारीक नज़र डालकर ये जांचने की कोशिश कीजिये कि आरोप लगने के बाद नेताजी कैसे कुलांचे भरते हैं। जवाब क्यों नहीं देते अपने ऊपर लगे आरोपों का। हर नेता बच के निकलने चाहता है। कोई जवाब नहीं देना चाहता हमारे उस सवाल का जो हम वोट के बदले मांग रहे हैं।
ये उम्मीद करना भी बेमानी ही है कि विरोधी नेता आरोप लगायेगें तो दूसरे नेता की पोल पट्टी सामने आ जायेगी। लेकिन कम से कम इस बात का डर तो मन में बैठेगा कि जो भी करना है और छिप के करो क्योंकि जनता तो बेचारी है वो पूछ भी लेगी तो हम जवाब क्यों दे, लेकिन अगर विरोधी को पता लगा तो वो कहीं पोस्टर न चिपका दे।
आजकल के मूर्धन्य नेता जो करतूतें कर रहे हैं वो तो ऐसे ही सामने आयेगीं। जब तक छील छील कर इनकी गेंडें जितनी मोटी खाल को उतारा नहीं जायेगा तब तक ये हर नाजायज काम निजी ज़िन्दगी की आड़ में करते रहेंगें और हम ओपिनियन पोल ही चलाते रहेंगें कि इनकी निजी ज़िन्दगी में झांकना चाहिये या नहीं।
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