Sunday, April 15, 2007

विदेशी दाल रोटी


बचपन में भारत पर निबन्ध लिखते समय शुरुआत यहीं से होती थी कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। आज समझ में आ रहा है कि इस कृषि प्रधान देश की कोई ठोस कृषि नीति नहीं है। हमारे देश में हरित क्रांति ने उत्पादन तो बढ़ा दिया लेकिन सरकार ने हमेशा कृषि को ठंडे बस्ते की फाईल ही समझ कर ही रखा। कृषि फाईल बन गयी और किसान वोट। महंगाई ने केन्द्र सरकार को राज्यों में चुनाव हरवाये तो हरकत बढ़ गयी। अब सरकार ने फैसला किया है कि वो 15 लाख टन दालों का आयात करेगी। अगर इस खबर के बाद आप ये सोच रहे हैं कि दालों की क़ीमतें कम होंगी तो भूल जाईये। हमारे देश में तकरीबन 25 से 27 लाख टन दाल की ज़रूरत पड़ती है। अंदाजा लगाईये कि कीमत का क्या होगा। दाल प्रोटीन का बेहतरीन स्रोत है लेकिन जिस देश में बच्चे कुपोषण का शिकार होते हों वहां ये सस्ता प्रोटीन मयस्सर नहीं है। समस्या आज की नहीं है। इस बार के बजट भाषण को अगर छोड़ दें तो सरकार ने कभी भी कृषि या यूं कहें कि दालों को लेकर कोई गंभीर रव्वैय्या नहीं अपनाया। 1961 से लेकर 1967 तक हमारे देश ने अन्न का जो अकाल देखा वो किसी को भी सबक सिखाने के लिये ज़रूरी था लेकिन ये सबक भी हम नहीं सीख पाये। कानपुर में दालों पर इस बात पर शोध ज़रूर हो रहा है कि कैसे इस तरह के उपाय खोजें जायं कि दालों का उत्पादन बढ़े लेकिन शोध के परिणाम अभी कुछ नहीं हैं। पंजाब में तीनों वक्त रोटी के साथ दाल और साग चाहिये उत्तर प्रदेश और बिहार में दाल के बगैर गुज़ारा नहीं है यहां रोटी और चावल बराबर अनुपात में खाया जाता है। दक्षिण भारत में भले ही इडली दोसा चावल के बनते हों लेकिन दाल वहां भी नियमित खुराक में शामिल है। सांभर के तो मूल में ही दाल है। हमारे देश के कुछ बुद्धिजीवी नेता और अर्थशास्त्री चाहते हैं कि यहां गेंहू और चावल उगाना ही बेकार है। उनका मानना है कि हमारे देश के किसान मेहनत ज़्यादा करते हैं उनको क़ीमत कम मिलती है लिहाज़ा किसानों को दाल चावल गेंहूं छोड़ कर नक़दी फसल उगानी चाहिये। हम अपनी नक़द फसल बाज़ार में बेचें और वहां से गेहूं और चावल खरीदें। बाज़ार का इतना सरल अर्थशास्त्र समझाने वाले क्या ये नहीं समझ पाते कि जिस हिन्दुस्तान में चावल और गेंहूं के बगैर चूल्ही नहीं जलता वो कैसे इससे दूर रह पायेंगें। हमारे यहां खेत का पहला गेंहूं और धान भगवान को भी चढ़ता है। पिछले दिनों अचानक दालों की कीमतों में जो तेज़ी आयी है उसकी ज़ड में सरकार की अदूरदर्शिता है। योरोप या अमेरिका के माडल पर लट्टू हमारे निर्माता जाने क्यूं वहां मानव विकास के स्तर को अनदेखा कर देते हैं। वहां मानव विकास का स्तर ऊंचा है तो खानपान और खानपान को लेकर सरकारी नीतियां बेहद केन्द्रित और दूरदर्शी हैं। हमारे देश की सत्तर प्रतिशत आबादी कृषि से जुड़ी हुयी है क्या वजह है कि इतने बड़े उत्पादन का हमारी जीडीपी में हिस्सा मात्र दो फीसदी हैं और जब कोशिश हो रही है कि इसे खींच खांच कर चार फीसदी कर दिया जाय। जय जवान जय किसान के नारे वाले देश में दो फीसदी कृषि का हिस्सा है को आठ फीसदी रक्षा व्यय है। आबादी लगातार बढ़ रही है। बफर स्टाक की हिमायती सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ही प्रबन्ध दुरुस्त नहीं कर पा रही है उससे कैसै उम्मीद की जा सकती है कि वो दाल आटा या गेंहू सस्ती दरों पर मुह्य्या करायेगी। सरकार बफर स्टाक इसलिये रखती है ताकि आपात काल की स्थिति से निपटा जा सके और कालाबाज़ारिये अपनी पैठ न बना सकें। लेकिन इस बफर स्टाक के फुल होने के बाद भी तो खाने के लिये कुछ चाहिये और वो भी वाजिब दामों पर। आज तो महंगाई का सेम्पल है खास तोर पर गेहूं चावल दाल और सब्ज़ियों के लिये। अब भी कोई नीति नहीं बनी तो सेज तो बन जायेगा लोकिन होली पर भूनने के लिये गेंहू की बाल नहीं मिल पायेगी। पहले अनाज का भोग लगाने जैसे रिवाज कहानी बन जायेगें और सबसे बड़ी बात कि ये देसी पेट इतनी महंगी विदेशी दाल रोटी पचा कैसै पायेंगें।


दिनेश काण्डपाल

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