Friday, August 31, 2007

बदनाम नायक


दिनेश काण्डपाल

जाने क्यूं ये तय करने में इतना वक्त लग रहा है कि संजय दत्त को सज़ा होनी चाहिये या नहीं। कोर्ट अपना काम कर चुका है लेकिन उदार जनता को संजय का जेल जाना बुरा लग रहा है। ये बुरा ठीक उसी जैसा है जिस तरह भारत क्रिकेट में हार जाता है। हार सबको बुरी लगती है। प्रशंसको की चाहत कोर्ट के फैसले के आगे हार गयी। बड़ा मलाल रहा इस हार का। सलमान के जेल जाते वक्त भी बुरा लग रहा था। जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने तो कह दिया था कि एक करोड़ ले लो दो करोड़ ले लो लेकिन सलमान को छोड़ दो। फारुख साहब कह रहे थे कि इस पैसै को जंगली पशुओं के संरक्षण में खर्च कर के हिसाब बराबर कर लो। इन नायकों की सज़ा के पीछे ये तर्क भी दिये जा रहे हैं कि अब ये लोग बदल चुके हैं। कुछ बुद्धिजीवी तो यहां तक कह चुके हैं कि मामला बेहद पुराना हैं क्यूं मरी भैंस की पूंछ उखाड़ रहे हो। संजय अब नेक इन्सान बन चुके हैं सलमान ने भी नेकी का रास्ता पकड़ लिया है। सलमान खान ने तीन रातों तक लगातार शिकार किया। पहली और दूसरी रात उसने चिंकारा मारे और तीसरी रात उसने काले हिरनों का शिकार किया। तीन दिनों तक लगातार गोलियां दाग कर बेजुबान जानवरों को मारते वक्त नेकी का रास्त क्यों नहीं सूझा। संजय दत्त को जब ये पता चला कि उसके पास रखे हथियार की वजह से वो जेल जा सकता है तब भी उसे ग्लानि नहीं हुई और उसने पुलिस को हथियार सौंपने की बजाय उसे आग की भट्टी में गलाने के लिये भेज दिया। जब तक अपने कोर्ट में गेंद रही तो आत्मा की खिड़की नहीं खुली अब जेल की बैरक के अन्धेरे में आत्मा अपना दीया जला रही है। जिस अख्खड़ पन से सलमान ने जोधपुर पुलिस को बयान दिया वो सबने देखा। कितना पश्चाताप हुआ है सलमान को ये तो उसकी हरकतें बता ही चुकी हैं। गवाहों को धमकाने की बात भी सरे आम हुई। यहां आत्मा क्यों नहीं जाग्रत होती। 1998 से लेकर अब तक आप ने माफी नहीं मांगी। ये नायक हैं, हीरो हैं हमारी ज़िन्दगी के नहीं बल्कि पर्दे के। ये फिल्म है बाबू फिल्म, यहां जिन्दगी दिख तो जाती है बितायी नहीं जा सकती। ये उसी फिल्म के हीरो हैं। क्या अपने बच्चों को बताने के लिये सलमान खान और संजय दत्त आदर्श उदाहरण हैं? कोई कहेगा इनके रास्ते पर चलो अगर नहीं तो क्यों हिन्दुस्तान के कानून से ये मांग चिल्ला कर हो रही है कि इनको माफ कर दो। किसको माफ कर दो संजय को या सलमान को या फिर हीरो को। 70 एम एम के पर्दे पर अपनी आंखों में आंसू लिये ये हीरो आपको रुला तो सकते हैं लोकिन 1993 के बम धमाकों की चीखें इन पर असर नहीं डालती, न ही चिंकारा की फड़फड़ाती टांगों पर कोई रहम होता है। जरा फर्क कर लें हम अपने हीरोलोगों में क्योंकि कानून से रहम मांगा जा सकता है मांगना भी चाहिये लेकिन किसके लिये इस बात का फर्क ज़रूरी है। कई लोगों को बातें करते हुये मैने सुना कि सेलेब्रिटी होने की वजह से इनको सज़ा मिल रही है। तो क्या सेलेब्रिटी को सज़ा नहीं होनी चाहिये? अदालत के कटघरे में खड़ा आदमी सेलेब्रिटी हो सकता है लेकिन कानून तो उस पर भी लागू होगा। संजय दत्त की पहचान ऐसे कई लोगों से थी जिनके तार मुम्बई धमाकों से जुड़े हुये थे वो आज भी उन्हें जानता है। इसमें सेलेब्रिटी होने का क्या फर्क पड़ता है। हम ये फर्क न करे तो बेहतर है। नहीं तो आज हम सेलेब्रिटी के सड़क पर गुज़रने से पहले किनारे कर दिये जाते हैं। रास्ते बन्द हो जाते हैं। कल कहीं इनके लिये नये क़ानून न बन जांय जो हम पर लागूं न हो सकें। ज़रा ध्यान रखियेगा।

दिनेश काण्डपाल