Tuesday, February 10, 2015

दिल्ली का वट वृक्ष क्यों रोया ????

अहंकारो के पर्वतों को ध्वस्त करके धूल उड़ाता एक परिणाम..आहलादित कर देने का एक अवसर है..अवसर की विवेचना सबके लिये नूतन सी है..एक वो जिनके मस्तक पर वर्षों के तप और संघर्ष से दीप्त हुआ तेज रहता था एकाएक मानो गहन अंधकार और दुर्गंध से भर गया है...वनस्पति विज्ञान में विधा है..कलम लगाने की..ये कलम इसलिये लगाई जाती है कि नये और रचनात्मक रस लिये हुए फल प्राप्त हों..लेकिन उस पर जड़ों में कोई आघात नहीं किया जाता..कलम को पौधें की एक शाख से ही जोड़ा जाता है..यहां तो दिल्ली के वट वृक्ष को बीच से काटकर कलम लगाने की कोशिश की गई..जड़ें तो कभी बुरा नहीं मानती लेकिन ये तने रूठ गये..ऊपर से पानी बरसता रहा लेकिन उसे पहले जड़ें और फिर तने ही तो फूल पत्तियों तक पंहुचाते हैं..सो वो नहीं पंहुचा पाये..पंहुचाना ही नहीं चाहा..उद्यान जिसके निर्देशन में था वो इस संयोग से खुश था कि कोई हल चला गया, किसी ने पानी दे दिया और कोई खाद डाल देगा...गहन कुंभकर्णी नींद..ये निद्रा उस अचेत अवस्था से बुरी थी..जो किसी प्रहार से मूर्छित होने के बाद होती..यहां तो सफलता ने मूर्छित कर दिया..लेकिन प्रकृति का न्याय देखिये..सत्ता का संतुलन हाथों हाथ हो गया..दंभ कभी नहीं टिका..आज क्या टिकता..बरगद की पुरानी जड़ें उन नन्हे कोपलों के लिये आंखों से नीर बहा रही हैं जो कल इस उद्यान में नये वृक्ष बनकर सुगंध फैलाते...लेकिन माली के गलत फैसलों ने वृक्ष पर इतना गहरा प्रहार किया कि जड़, तने सब विश्वास खो बैठे...
इस दंभ ने एक स्वप्न का भी संहार कर दिया...और अब वर्षों से चले आ रहे यज्ञ में स्वयं विध्वंस की आज्ञा सी दे दी। उन स्थानो का भाग्य सदा अश्रु बहाने के लिये होता है...ये इतिहास में पढ़ा था..अब भोग कर साक्षी बन रहे हैं...कुछ कुछ द्वापर युग के महाभारत का स्मरण हो जाता है..जब द्यूत में अहं युद्धिष्ठिर की बुद्धि को भ्रमित कर बैठा और उसने द्रोपदी को दांव पर लगा दिया...फिर क्या था..ले आये दु:शासन द्रौपदी को भरी सभा में..प्रजाजनों ने भी आनंद सा ही लिया...कौन क्या करता...अपराध धर्मराज ने किया था...बांसुरी वाले मोहन आये और अपना कर्तव्य पूरा कर गये...
कहानी तो इससे आगे भी है...आपको पता भी होगा...लेकिन ये बालुकामय पुलिन..उड़ उड़ कर आंखों पर पड़ते रहे..राजा प्रजा सब इससे पार पाने का कोई उपाय न खोज सके..हाथों में मिर्च लिये द्यूत अट्टाहस करता रहा..प्रजा आनंद प्राप्त करती रही...बादलों के बीच नगर बसाने की कल्पना से भला कौन अपना तप नहीं छोड़ देगा...धरातल का कोई मोल नहीं था, बादलों का महल किसे नहीं चाहिये...सो वो मिल रहा था...कल्पनाओं के सागर में हिलोरें ले रही प्रजा को ..द्यूत ने पलटने का मौका नहीं दिया..द्यूत मौका देता भी नहीं है...सो परिणाम आ गया..
अब राजा प्रजा से खफा है...अपने मंत्रियों से भी..वो सोने की तैयारी तो नहीं कर रहा?